गोरखपुर। ट्रेनों में लगे शौचालयों पर निर्देश लिखे होते हैं कि कृपया गाडी खड़ी रहने के दौरान इसका प्रयोग ना करें। वजह, स्टेशन पर गंदगी न हो जबकि ट्रेन के चलने पर शौच आदि से ट्रैक पर गंदगी फैलती थी। पर अब रेलवे ने यात्रियों व खुद से जुडी इस परेशानी का हल ढूंढ लिया है।बायो-ट्वायलेट इसके बेहतर विकल्प साबित हो रहे हैं। यह न सिर्फ सुविधजनक है बल्कि पर्यावरण के लिहज से भी बेहतर।
दरअसल, गाड़ियों के पारम्परिक शौचालय में गन्दगी होेने तथा विसर्जित मल-मूत्र के रेल ट्रैक पर गिरने के फलस्वरूप होने वाली दिक्कतें रेल प्रशासन के लिये परेशानी का सबब रहीं है। यात्रियों के लिये भी स्टेशनों पर गाड़ी के ठहराव के समय प्रसाधन का इस्तेमाल न करने का रेल प्रषासन का अनुरोध स्वयं में अटपटा और असुविधाजनक लगता था। रेल प्रशासन के लिये यह चिन्ता और चिन्तन दोनों का ही कारण रहा। इस समस्या के संतोषजनक एवं पर्यावरणमित्रवत निराकरण के लिये बायो-टवायलेट के रूप में समाधान खोल लिया गया।
डिफेन्स रिसर्च एण्ड डेवलेपमेन्ट आरगेनाइजेषन (डीआरडीओ) द्वारा अत्यन्त ठण्डे क्षेत्रों में कार्यरत सैनिकों के मल (जो अत्यन्त ठण्ड तापमान में सालिड रूप में ही रहते थे) के डिस्पोजल के लिये किये गये अनुसन्धान के फलस्वरूप एक ऐसे वैक्टीरिया को विकसित किया गया जो इसे एबजार्ब कर लेता है। डीआरडीओ की तकनीकी सहायता से रेल प्रशासन ने इस बैक्टीरिया पर आधारित बायो-टवायलेट (ग्रीन टवायलेट) का इस्तेमाल रेल कोचों में करना प्रारम्भ कर दिया गया है। जिसके परिणाम अत्यन्त उत्साबर्धन एवं अपेक्षित रूप में सामने आये है। यात्री कोचों में लगे बायो-टवायलेट में पानी का भी प्रयोग बहुत ही सीमित मात्रा में करना होता है। यह बैक्टीरिया व्यक्ति द्वारा विसर्जित मल-मूत्र का अधिकांश भाग को लगभग स्वच्छ जल एवं गैसों के रूप में परिवर्तित कर देता है तथा बचे हुए सालिड़ वेस्ट का एबजार्ब कर लेता है।
इस प्रणाली से गन्दगी के निजात मिलने के साथ ही अब स्टेशनों पर ठहराव के दौरान भी यात्री प्रसाधनों का इस्तेमाल बेहिचक कर सकते है। पूर्णतः देशी तकनीक पर आधारित यह बायो-टवायलेट जहां एक ओर स्वच्छता के स्तर को आशातीत रूप में बढ़ाता है। वहीं कोचिंग डिपो तथा अन्य अनुरक्षण स्थलों पर कार्यरत कर्मचारियों के कार्य-वातावरण को भी स्वास्थ्यप्रद बनाता है। रेल ट्रैक पर पहले गिरने वाले मल-मूत्र से गन्दगी के साथ ही रेल पथ एवं उनसे जुड़े फिटिंगों में जो क्षरण होता है, अब उसकी संभावना ही समाप्त हो गयी। इस प्रकार स्वच्छता के साथ ही बायो-टवायलेट का प्रयोग रेल संरक्षा की दृष्टि से ही अत्यन्त महत्वपूर्ण है।
पूर्वोत्तर रेलवे के 459 कोचों में कुल 1238 बायो-टवायलेट लगाये जा चुके है। 12533/12534 पुष्पक एक्सप्रेस का एक पूरा रेक बायो-टवायलेट युक्त है। इसी प्रकार 15045/15046 ओखा एक्सप्रेस के पूरे रेक में बायो-टवायलेट की सुविधा उपलब्ध है जो ग्रीन स्टेषन ओखा जाती है। भारतीय रेल पर यांत्रिक कारखाना,गोरखपुर पहला कारखाना है जहां पर पीओएच के दौरान बायो-टवायलेट लगाने एवं उनके अनुरक्षण का कार्य किया जा रहा है। डेमू गाड़ियों के रेक में भी बायो-टवायलेट लगाये जा रहे है। अब जो नये कोच निर्मित हो रहे उनमें बायो-टवायलेट ही लगाया जा रहे है। उनमें बायो-टवायलेट ही लगाया जा रहा है। पूर्वोत्तर रेलवे की योजना यथाषीघ्र सभी यानों का बायो-टवायलेट से युक्त करने की है शीघ्र ही 2,000 (दो हजार) बायो-टवायलेट खरीदे जाने है। पूर्वोत्तर रेलवे की सभी गाड़ियों के कोचों में यह सुविधा उपलब्ध करान हेतु लगभग 6,200 (छः हजार दो सौ) बायो-टवायलेट की आवश्यकता आंकी गयी है।एक बायो-टवायलेट पर रू. एक लाख का खर्च आता है।