लखनऊ। देश की सियासत में कांग्रेस की अंतिम सांस चल रही है। क्या पतझड के बाद बहार आने वाला मुहावरा साकार हो पायेगा। इन दोनों मे क्या सही साबित होगा और क्या गलत ,यह तो वक्त को तय करना है।
देश की राजनीती मे मोदी युग मे जिस तरह से भाजपा का ग्राफ बढ़ा है और कांग्रेस के ग्राफ में गिरावट आई है उसे कांग्रेस के सियासी जीवन के लिए शुभ नहीं माना जा सकता है। पांच राज्यों मे हुए विधान सभा चुनाव नतीजों ने भाजपा को उर्जावान बनाया है।
दिल्ली और बिहार विधान सभा चुनाव मे मिली करारी शिकस्त के जख्मो को भरने का काम किया है। भाजपा उस मिथक को भी तोड़ने मे कामयाब हुई है की उसकी लोकप्रियता मे गिरावट आ रही है। एक दौर वह भी हुआ करता था जब सारे विपक्षी दल कांग्रेस से मुकाबले के लिए बेमेल समझौता किया करते थे।
जिसके अनेकों उदहारण हैं जिसमे 1977 और 1989 का दौर प्रमुख रहा है।असम और केरल की सल्तनत कांग्रेस से छिन गयी ।असम में भगवा फहरा तो केरल मे कम्यूनिस्ट का लाल परचम लहराया। पश्चिम बंगाल मे कांग्रेस का वामदलों के साथ गठजोड़ नाकाम रहा है।
तमिलनाडु मे भी द्रमुक सहित अन्य छोटे दलों के साथ उसका तालमेल असफल ही रहा है। इन पराजयों के बाद कांग्रेस के वरिष्ठ नेता शशि थरूर मानते हैं कि कांग्रेस के आत्म मंथन का वक्त गुजर चुका है दूसरी तरफ पार्टी के महासचिव दिग्गी राजा संगठन की बड़ी सर्जरी किये जाने की वकालत करते हैं।
इससे साफ जाहिर होता है की कांग्रेस के भीतर कितनी कुंठा भरी उथल पुथल और मायूसी है। यदि हम पिछले दो सालों मे नजर डालें तो हरियाणा राजस्थान महारास्ट्र झारखंड आन्ध्र प्रदेश और जम्मू कश्मीर की सल्तनत गवां चुकी है। पूरे देश मे राज करने वाली यह पार्टी हिमांचल मणिपुर मेघालय मिजोरम और पन्द्चेरी राज्यों के साथ उत्तराखंड तक वह सिमट चुकी है।
उत्तराखंड का राज्य तख्त भी उससे छिनते छिनते बचा है। अगले साल हिमांचल यू पी गुजरात पंजाब उत्तराखंड मे विधान सभा चुनाव होने वाले हैं । हिमाचल और उत्तराखंड में जहां खुद को सुरक्षित रखने की चुनौती है तो यू पी में पी के के प्रभुत्व का प्रभाव उसके लिए कितना कारगर होगा।